- " साहब, आप चलो न हमरे घरको।
दो-चार रोज मजा करेंगे।"
- "आ सकता हूं हरीषभाय,
लेकिन डर लगता है।
अगर गांववालोंको पता चला के मैं महाराष्ट्रसे आया हूं तो...? "
- "अरे क्या साब? हमरे गावके लोग इधर जैसे नहीं है।
दिन-रात आपका खयाल रखेंगे।
आयोध्या मंदिर घुमायेंगे। नदियां नहायेंगे।
लेकीन कोई आपको हाथ लगाने की सोचेगाभी नही साहऽऽब. कसमसे."
- "एक बात बताओ;
इधर जब तुम्हारे विरुद्ध आंदोलन उठता है
तो तुम क्या करते हो?"
- "क्या करने का साब,
दो-चार दिन चुपचाप बैठने का...
बाहर किसीसे कोई बात नहीं करनेका। और क्या ?"
- “गांवसे घबराके बीबीका फोन नहीं आता घर आओ बोलके ?”
- “आता है न साब| मगर क्या करें ?
काम छोडके घर थोडेही बैठ सकते है?
दंगा फसाद तो दो-चार दिन की बात रहती है|
सचमुच साब चलो न एकबार ”
- “अरे अभी नहीं| फिर कभी पक्का|
अभी तो दिवाली मनायेंगे| फटाके फोडेंगे|”
- “क्या साब ?
एक बार हमारीभी दिवाली देखो|
हमारे यहां आप जैसी खिलौनोकी पिस्तौल नहीं होती
वोह क्या बोलते है आप?
‘कट्टा कट्टा’ उसमें छर्रे भरनेका और हवामे उडानेका| बस्स|
पुरे गावमे जश्न होता है जश्न|
चलो न साहब ... हमारे घरको| ”
:)
ReplyDeleteकड्डाक शेवट!